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Wednesday, June 14, 2017

आयतित विचारधारा एक बोझ

हमारे देश में आप तब तक एक अच्छे पत्रकार, फिल्मकार, कलाकार नहीं हो जबतक आप वामपंथी विचारधारा को स्वीकार नहीं लेते | जब वामपंथी बनना इतना ही जरूरी है बेवजह हर जगह हर बात पर तो क्योँ नहीं दुसरे के बाप को अपना बाप कहते हो, इससे तुम और ज्यादा वामपंथी हो जाओगे |( यह एकमात्र व्यंग्य है )
जिस तरह अफ़्रीकी ऊनी कपड़ा अपने गर्म प्रदेश में  और यूरोपियन सूती कपडे अपने सर्द प्रदेश में नहीं पहनते| ठीक उसी तरह एक ही तरह की शासन तंत्र प्रणाली(system of government) को हर जगह थोपा नहीं जा सकता | जहाँ तक वामपंथ की बात है , हमारे देश का बुद्धिज़्म संस्करण कही ज्यादा बेहतर है कार्ल मार्क्स के साम्यवाद संस्करण से | हमारे देश में पुराने समय में भी वामपंथी रहे है | गौतम बुद्ध, शंकराचार्य , दयानंद सरस्वती आदि कुछ उदहारण हो सकते है ऐसे वामपंथ( leftism) का |
जिस तरह अमेरिका में साम्यवाद, नार्थ कोरिया-क्यूबा-चीन  में पूँजीवाद और अरब देशों में लोकतंत्र को नहीं थोपा जा सकता अभी | उसी तरह इस देश में मार्क्सवाद के देशी संस्करण नक्सलवाद-माओवाद भी अवांक्षित है , इस देश के लिए | इस देश को एक नए शासन तंत्र प्रणाली (new type of SOG) की आज भी तलाश है, जो इसके अनुसार सही हो |
[ कोई भी वाद हो , यदि वो हक़ की बात करता हो | भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं को सबको उपलब्धता की बात करता हो  ,तो  वो हमें स्वीकार्य होना चाहिए | पर जब ये एक नए शासन तंत्र प्रणाली ( SOG) की बात करे और वो साम्यवाद (मार्क्सिस्ट कम्युनिज्म) आधारित हो जो  कही भी किसी का भला न कर सका चाहे वो सोवियत रूस हो या नार्थ कोरिया | तब हमें ऐसा तंत्र स्वीकार्य नहीं और ऐसे शासन तंत्र व्यवस्था का बहिष्कार होना चाहिए | ]

Thursday, June 23, 2011

लोकतंत्र का विकल्प

 
वर्तमान परिदृश्य में ये देखने में आता है कि एक मानसिक रूप से विक्षिप्त के मतदान का उतना अधिक ही महत्व होता है जितना कि एक जिलाधिकारी का | क्या ये कहीं से प्रासंगिक है और क्या ये प्रायोगिक तौर पर सही  है ?
अब प्रश्न उठता है कि तब लोकतंत्र का विकल्प क्या हो सकता है | ये यक्ष प्रश्न है पर इसका जवाब  हमें ही ढूंढना होगा | देखने में प्रतीत होता है कि वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था से  अच्छी कोई भी व्यवस्था नहीं हो सकती और इसका विकल्प कुछ  भी नहीं हो सकता | तो आपको पता होना चाहिए कि सुकरात और प्लेटो कि लोकतंत्र कि अवधारणा से पहले लोग राजतंत्र के बारे में यही खयालात रखते थें | लोग राजतंत्र का विकल्प और इससे अच्छा शासन के तंत्र के बारे में उस वक्त सोच भी नहीं सकते थे | पर बाद मे क्या हुआ सबको पता है |  
पुराने शासन तंत्रों से तो बहुत अच्छा है वर्तमान-लोकतंत्र |  राजतंत्र निरंकुश था , और जनता के हकों का दुश्मन था | साम्यवाद  आज के सन्दर्भ मे शासन-तंत्र के रूप मे असफल प्रयोग है, और दुनिया मे जहाँ इसकी उत्पति हुई , वहीँ से समाप्त हो गया | सैन्य-शासन मानवाधिकार के सन्दर्भ मे कहीं से प्रासंगिक नहीं है , म्यांमार के सैन्य-शासन का उदहारण सामने है |
हमें इसी लोकतंत्र मे रहते हुए और शासन  के नविन-तंत्र को आधार बनाकर एक नई शासन-तंत्र कि संकल्पना करनी होगी | जिसमे वर्तमान लोकतंत्र कि सारी खामियों का ध्यान रखा गया हो  ||




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नयी शासन-तंत्र के सन्दर्भ मे मेरे विचार :-
मतदान क्रेडिट सिस्टम पर हो ; ये निर्धारित कर दिया जाये कि कितने पढ़े-लिखे के मतदान का कितना क्रेडिट होगा , और निरक्षर का कितना होगा | ओहदे के हिसाब से प्रशासनिक,सैन्य और सरकारी अधिकारीयों गैर सरकारी कर्मचारियों का कितना क्रेडिट होगा मतदान का |
प्रतिनिधि के चुनाव-पत्र नामंकान भरने कि कुछ शैक्षिक योग्यताएं और कुछ शर्तें होनी  चाहिए |    

Wednesday, June 22, 2011

मुद्दे जो हमसे जुड़े है: नक्सलवाद की आड़ में सामंतवाद

मुद्दे जो हमसे जुड़े है: नक्सलवाद की आड़ में सामंतवाद: "इस उपरोक्त टिपण्णी पर जरा गौर कीजियेगा और एक पल के लिए सोचियेगा : १) १.) क्या ६० के दशक में पनपा नक्सलबाड़ गांव से ये आंदोलन अपने मू..."

मुद्दे जो हमसे जुड़े है: नक्सलवाद की आड़ में सामंतवाद

मुद्दे जो हमसे जुड़े है: नक्सलवाद की आड़ में सामंतवाद: "इस उपरोक्त टिपण्णी पर जरा गौर कीजियेगा और एक पल के लिए सोचियेगा : १) १.) क्या ६० के दशक में पनपा नक्सलबाड़ गांव से ये आंदोलन अपने मू..."

नक्सलवाद की आड़ में सामंतवाद

इस उपरोक्त टिपण्णी पर जरा गौर कीजियेगा  और एक पल के लिए सोचियेगा :
१)    १.)  क्या ६० के दशक  में पनपा नक्सलबाड़ गांव से ये आंदोलन अपने मूल विचारधारासे  से भटक गया है ?
२)     २.)  माओवाद एक विदेशी विचारधारा हमारे देश के लिए कितना प्रासंगिक है ?
जो विचारधारा अपने जन्मभूमि पर शांति-सुकून नहीं दे सकी ,गरीब-मजदूरों को और गरीब बनायीं ,मानवाधिकार का उलंघन गरीबों-मजदूरों की परिप्रक्ष्य में की ,वो कितनी प्रासंगिक है आज हमारे देश के लिए ?
आज जबकि सभी व्यस्त है , सब के पास सिर्फ समय बचा है  गंभीर बातों को मजाक में लेने का , तब मै आप सबके सामने आज के  नक्सलवाद{माओवाद}  की कुछ जमीनी हकीकत पेश करना चाहूँगा |
नक्सलवाद प्रभावित राज्यों विशेषकर आँध्रप्रदेश ,बिहार-झारखण्ड ,उडीसा,क्षतिसगढ़ और पूर्वांचल {पूर्वी यु.पि} में जब कोई ठेकेदार  रोड या कोई अन्य सार्वजनिक निर्माण जैसे विद्यालय या अस्पताल बनाने का ठीक लेता है  तो उससे पुरे ठेके में से १०% की मांग की जाती  है; ये बात सबको पता होती है |वह ठेकेदार सड़के खराब बनाकर अपनी भरपाई करता है |सड़के खराब होने से सबसे ज्यादा क्षति किसको होती है , आम जनता को |  
जब कभी गांव-देहातों में दो गुटों में या दो लोगों में आपसी विवाद होता है |और आपसी समझ-बुझ के द्वारा निपटारा भी हो जाता है ; तो भी ये नक्सलवादी तानाशाह की तरह आते हैं  और दोनों लोगों को अपनी आदालतों में आने का सामंती फरमान जारी कर देते हैं | सामान्यतः ऐसा देखा जाता है की ये दोनों गुटों से आर्थिक फायदा उठाते हैं ,जैसे उनसे पूरे काफिले के लिए दावत {खाने-पीने} का बंदोबस्त का फरमान जारी करना आदि-आदि |
अब मै आपलोगों के समक्ष एक ऐसी सच्चाई पेश कर रहा हूँ जो की हम जानते है उससे एकदम उल्टा है |यह जानकार मै भी हैरत-अंगेज रह गया | आज एक नयी सामंतवादी व्यवस्था का उद्भव हो चुका है और इस सामंतवादी तंत्र के अगुआ और प्रतिनिधि अन्य-पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने लोग हैं | जो नहीं चाहते की आदिवासियों,दलितों और गरीबों-मजदूरों का उत्थान हो ; और आश्चर्य की बात यह है की ये खुद को इन शोषितों का मसीहा बता रहे हैं और इनपर ही सामंतों की तरह शासन कर रहे हैं |
एक घटना  का उल्लेख करना मै यहाँ जरूरी समझता हूँ | मै अपने पैत्रिक-गांव गया हुआ था | मेरी बात एक सज्जन से हो रही थी ; जो एक अच्छे कृषक थे  और तक़रीबन ३० सालों से बुआई-कटाई के लिए मजदूरों को लाने झारखण्ड {पहले बिहार} के लातेहार{पहले कोडरमा} जिले जाया करते थे |उन्होंने अपनी आप बीती बताई :-
“ एक बार जब मै मजदूरों को लेकर वाहन से आ रहा था तो उस जगह से निकलते ही ;वहाँ रास्ते में दो युवक हाथ में हथियार{स्वचालित-बन्दूक} से लैश होकर वाहन को रुकवाएं और बोले गाड़ी अब आगे नहीं जायेगी ;तुमलोग उतरो| उन मजदूरों{आदिवासियों} में से किसी का हिम्मत नहीं हो रहा था की वे बोले की बाबू हमें बहार जाने से रोक रहे हो तो क्या तुमलोग  हमें खिलाओगे ,रोज़ी-रोटी का साधन दिलाओगे | वे बेचारे डरे-सहमे थे | तभी एक सज्जन जैसे दिखने वाले वहाँ आयें जो की उन हथियार-बंद जवानों के मुखिया थे | मैंने उनसे बोला “ यादव जी ये देख रहे हैं ,जाने दीजिए ; इन   बेचारे गरीबों का रोज़ी-रोटी छिनने से क्या फायदा |”
तब यादव जी मुझे बगल में ले जाकर बोलें  ‘ आप –लोगों का ही तो ये सब किया धरा है | आप ही लोग तो इन्हे बिगाड़-कर रख दिए हैं | ‘इन्हे यही मरने देते {पड़े रहने देते }| मै कुछ नहीं बोला बस सुनते गया और यादव जी को कुछ खर्चा-पानी{रिश्वत} गाड़ी छोड़ने के एवज में दिया ;और तब जाकर वहाँ से गाड़ी आगे बढ़ी |”{यह घटना झारखण्ड के लातेहार जिले कि है }
                    इस तरह की घटनाएँ झारखण्ड में आम हैं | ये मध्य-वर्ग  नविन सामंतवाद का सृजन कर रहा है | जिसमे वो आदिवासियों -दलितों का शोषण कर रहा है ; उनका मसीहा बनकर |
·                     *  मै एक  सवाल आप सबसे करना चाहता हूँ की आखिर सर्वजनिक अस्पताल और सरकारी विद्यालयों को क्षतिग्रस्त कर के ; नक्सलवादी बंधुओं की कौन सी मानसिकता उजागर होती है | क्या वे नहीं चाहते की  आदिवासी-दलित पढ़-लिखकर उत्थान करें ?

नक्सल प्रभावित राज्यों बिहार-झारखण्ड ,पूर्वांचल,उड़ीसा,क्षतिसगढ़ और आंध्रप्रदेश में एक ऐसे  मध्य-वर्ग का उद्भव हो रहा है जो की एक नविन सामंतवादी{जमींदारी} प्रथा का सृजन कर रही है | इन समुदायों की तिव्र इक्षा खुद को सामंतों की तरह ऊपर उठाने और आदिवासियों-दलितों  को गर्त में धकेलना है ;उनका प्रतिनिधि और उनके हक की लड़ाई का स्वांग रचकर ये अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं |
उदाहरणत: मै यहाँ सिर्फ झारखण्ड की वास्तु-स्थिति  रखता हूँ | यहाँ के नक्सलवादी और माओवादी गुटों के कमांडर और हथियार-बंद दस्तों में सिर्फ अन्य-पिछड़ा वर्ग के {अधिकंसत:} लोग शामिल  होते हैं ; खाशकर यादव बंधू-लोग अधिकांश मिल जायेंगे |यहाँ के आदिवासी और दलित डर में जीते हैं |एक तरफ अगड़ी जाति के लोगों की मानसिकता इनके विकास में बाधक होती है और दूसरी  तरफ इन लोगोंका डर इनपर इस कदर हावी होता है की इनका विकास अवरुद्ध हो जाता है | एक तरफ इन्हे मुख्य-धारा में आने से विभिन्न तरीकों से रोका जाता है वहीँ इस तरह का कुचक्र रचा जाता है की ये सरकार द्वारा मुहैया कराये गए सुविधाओं से वंचित रहें | मतलब  ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’ जैसी  स्थिति यहाँ के आदिवासियों दलितों के साथ हो जाती है |
यहाँ आदिवासियों,दलितों को जानबूझकर शिक्षा पाने और मुख्या-धारा से जुड़ने से वंचित रखा जाता है |इसके बहुत से कारक  है ,जिनमे से कुछ का मै यहाँ उल्लेख करता हूँ :-
·       *  आदिवासी और दलितों के बिरादरी से आने वालें राजनीतिज्ञ जानबूझकर इन्हे इनके हाल पर रखना चाहते हैं | जिससे ये बिना समझे-बुझे अपनी जातिगत वोट-बैंक पा सकें | क्यूंकि  इनके शिक्षित और समझदार हो जाने पर इन्हें{प्रतिनिधियों को} अपनी निजी-स्वार्थ और सस्ती जातिगत आधारित वोट-बैंक पर खतरा मंडराते नज़र आता है |
·       *  और ये अन्य-पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले अगुआ लोग खुद को उनका मसीहा बताकर उन्हें जान-बूझकर अशिक्षित और  मुख्या-धारा से कटे रहना देना चाहते हैं | ताकि उनके गुस्से को एक खाश वर्ग के खिलाफ भड़काकर वे अपना उल्लू सीधा कर सकें | यहाँ इनकी सामंती सोच काम कर रही होती है |

मै इस परिप्रेक्ष्य में बस्तर का उदहारण रखता हूँ |बस्तर में नक्सलवाद इसलिए बढ़ा कि जब वहाँ के आदिवासियों से उनका जमीन,जंगल और रोज़गार  छिना जा रहा था तो उन्हें  संगठित होकर सशस्त्र संघर्स करना पड़ा, जो कि उस समय कि और परिस्थिति कि मांग थी ; सरकार  का ध्यान खींचने और अपने  घर , रोज़गार को बचाने का एकमात्र रास्ता था |  पर जब सरकार ने वहाँ के आदिवासियों के हित में कार्य करना शुरू किया तो नक्सलवादियों को समस्या होने लगी |उन्होंने सरकार  के सार्वजनिक हित के कार्यों का पुरजोर विरोध करना शुरू कर दिया | ये समझ से परे है कि आखिर ऐसे समाज उत्थान के कार्यों से आखिर नक्सलवादियों को किस तरह का नुकसान हो रहा है |सरकार  द्वारा बनवाये गए सार्वजनिक अस्पताल और विद्यालयों को निशाना बनाया गया ; आखिर विद्यालय तो शिक्षा-अर्जन के लिए हैं ,इससे भला क्या नुकसान हो सकता था | ये बातें कुछ सवाल जेहन में छोड़ जाती हैं :-
·       *  सरकार द्वारा मुहैया कराये जाने वाले सुविधायों को पाने से आदिवासियों को आख़िरकार क्योँ रोका जाता है ? और इसका मकसद क्या है ?
·        * मुख्या-धारा में जाने पर या नक्सलवादियों के ज्यादतियों और सामंतवादी व्यवहारों का विरोध करने पर इनके द्वारा ,आदिवासियों का  नरसंहार क्योँ किया जाता है ?
मकसद तो इस विचारधारा का पिछडों का उत्थान था ; और जबकि उत्थान का और इनके जीवन-स्तर के विकास का कार्य हमारे भारत सरकार द्वारा हो रहा है तो इसका विरोध कहाँ तक उचित है | यहाँ विरोध कहीं से भी  प्रासंगिक प्रतीत  नहीं होता और ऐसा क्योँ हो रहा है कुछ  समझ में  नहीं आ रहा है |
इसका सीधा सा मतलब  निकलता है कि ये नहीं चाहते कि वास्तविक मायने में आदिवासियों-दलितों का भला हो | ये तानाशाही और सामंतवाद को आदिवासियों पर कहर बरपा कर चलाना चाहते हैं | ये अपनी मूल-विचारधारा से भटक गए हैं | आखिर आदिवासियों के हक के लिए लड़ने वालों को ही इनकी नर-संहार कि जरुरत क्योँ पड़ रही है ;ये एक ज्वलंत मुद्दा है |
इसका जवाब जितना ही सरल है, उतना ही जटिल भी ||

Thursday, January 27, 2011

गणतंत्र -एक मजाक

आज गणतंत्र दिवस है | सबसे पहले आप सबको ६२ वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई हो  |हमें फक्र है की हम सबसे बड़े लोकतंत्र मे रहते हैं ,क्योंकि हमारी लोकशक्ति दुनिया मे अधिक है न | सबको पता है इस गणतंत्र दिवस पर भी कुछ नया आज नहीं होने वाला है | राष्ट्रपति ध्वजारोहण करके खानापूर्ति कर देंगी  ,  और कुछ लोग भाषण  देकर अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड लेंगे |
मुझे रह-रह के एक  बात चैन नहीं लेने नहीं दे रही है |  इस गणतंत्र दिवस पर जरा गौर फरमाइए | हमारे जिम्मेवार और बुजुर्ग लोग संसद और उंच्च-न्यायालय मे संविधान का मजाक उड़ाते है | हमेशा  संविधान की कोई कमी को सही करने के बजाए उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल... करते है--,,---और हम युवा और आमलोगों से आशा करते है की हम अपने संविधान मे विश्वास और निष्ठा बनाये रखेंगे ,,ये क्या मजाक आज हमारे देश मे हो रहा है. मुझे तो जरा भी कुछ समझ मे नहीं आ रहा है | हमें तो एक गधे से भी ज्यादा यहाँ  बेवक़ूफ़ बनाया जाता है, जिसे बोला जाता हो सुखी घांस खाओ सेहतमंद रहोगे और खुद हरी घांस के चक्कर मे हमेशा पड़े रहते हैं|
कुछ  संविधान की अवमानना या तिरस्कार हमारी सरकार  या कुछ जिम्मेवार लोगो ने किया है, जिसपर हमें गौर करना होगा |इन्होने ऐसा करके  देश के सामने एक ऐसा उदहारण पेश किया है की कोई भी चाह के भी संविधान के प्रति निष्ठा नहीं रख सकता | इन्होने समूचे  कानून -तंत्र और संविधान पर ही प्रश्नचिंह लगा दिया है| वे मुद्दे हैं या कहिये उनमे से कुछ इस प्रकार  हैं:---
  1. सर्वोच्य अदालत के फैसले के बावजूद अफजल गुरु को फांसी  नहीं दिया गया| और तो और उसे बचने की भी कोशिस की गयी , चन्द फायदे के लिए सतारूढ़ दल द्वारा | संविधान की कमी का फयदा उठाया गया यहाँ  अपने फायदे के लिए , और  सर्वोच्य -अदालत के फैसले का तिरस्कार करते हुए ये मामला राष्ट्रपति के सामने लंबित कर दिया गया | आश्चर्य ये मामला आज भी लंबित ही है | इससे समाज मे क्या सन्देश गया  | क्या इससे संविधान के प्रति हमारा  आदर मे इजाफा हो गया !  , कतई  नहीं बल्कि  हममे  संविधान के  प्रति नफरत  ही पैदा हो गया | यहाँ  संविधान की कमी को सुधारने  के बजाय अपने स्वार्थ के लिए संविधान और क़ानून का फायदा उठाया गया |
  2.  फांसी देने मे भी असमानता जो की हमारे "समानता के अधिकार का उल्लंघन  " करता है | उदहारण सामने है धनञ्जय चटर्जी को फाँसी दे दी गयी पर निठारी कांड के अभियुक्त दानव के साथ क्या किया गया !
  3. जेसिका लाल हत्याकांड हो या उज्जैन की  विदेसी युवती के साथ बलात्कार की घटनाये ,ऐसे बहुत से उदहारण  है जहाँ पर  सरकार ,न्यायालय ,और पुलिस इतनी सख्त नहीं हुई थी जितनी की  धननंजय चटर्जी के वक़्त हुई थी | ये मामला भी राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के पास गया था |  उसके माँ बाप पैर  पकड़कर राष्ट्रपति से  रो-रो  के  बोले थे सिर्फ फांसी के बजाय आजीवन उम्रकैद दे दिया जाये | उस समय राष्ट्रपति महोदय का दिल नहीं  पिघला या मानवाधिकार वालें उस वक़्त सो  रहे थे | क्या इसीलिए की वो गरीब था पहुंचवाला   नहीं था  |ये भेदभाव किस अधार पर था पता नहीं  पर ऐसे घटनाओं ने समानता का अधिकार पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है ???ये सही है की ये अधिकार नहीं है पर सजा मे तो सबके लिए समानता बरतनी चाहिए जो हमारा संविधान मे लिखा गया है ,कानून  तो किसी के साथ  भेदभाव नहीं करता पर यहाँ क्या किया है क़ानून ने ???????
  4. सूचना  का अधिकार तो है हमारे पास पर हमें ये  कहकर नहीं दिया जाता की ये देशहित मे नहीं है, जबकि ये सूचना हमें देशहित के ही लिए चाहिए होती है  | देश की सुरक्षा से सम्बंधित सूचनाओ को तो दे दिया जाता है, जिससे की  दुश्मन हमारे कमी का फयदा उठा ले,पर स्वित्ज़रलैंड    की सरकार द्वारा मुहैय्या कराइ  गए आंकडे सार्वजनिक नहीं किये जा रहे ,जिससे हमें पता चल सके कौन कितना भ्रष्ट है|ये मुझे थोडा सा भी समझ मे नहीं आया की भ्रष्ट लोगों  की शिनाख्त कर लेने से देशहित को कौन सा खतरा है,जिसकी वजह से सूचनाये मुहैय्या नहीं कराइ जा रही |  कहीं ऐसा तो नहीं है न  की जो जिम्मेवार मंत्री जी  है वे भी इसमे फंस सकते है,या इंतेज़ार किया जा रहा है फेरबदलकर के इसमे भी भ्रस्टाचार का ||
  5. आरक्षण --संविधान तैयार करते समय प्रवधान किया गया था की आरक्षण १० साल के लिए ही है केवल ,पर ये तो आजतक भी है |इससे आरक्षण लेने वालों को भी  परेशानी हो रही है ,वे नहीं चाहते की वे आरक्षण की बदौलत कामयाब हो ,तो फिर ये आरक्षण आज भी क्यों|संविधान बनाते समय ज्यादा से  ज्यादा ५०% आरक्षण की बात की गयी थी और यही बिल मे भी पास हुआ  पर आज तमिलनाडु मे आरक्षण ६७% है जो की हमारे संविधान की अवमानना करता है |यहाँ अल्पसंख्यकों को भी आरक्षण देने का प्रवधान किया गया है  जो की गलत है,- धार्मिक आधार पर भेदभाव करने के अंतर्गत , पर यहाँ ये कैसे हो गया और ५०% का आंकड़ा आरक्षण को जो की कुलमिलाकर ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए, इसका उल्लंघन यहाँ  क्यों  हो रहा है| राजनीतिक दलों द्वारा कुछ वोट  के लालच के लिए आसानी से संविधान का उल्लंघन कर दिया जाता है जिससे देश की आत्मा मे एक रोग पनपता है  | और भी कई राज्य इसके उदहरण है जिनमे बिहार हाल-फ़िलहाल शामिल हुआ है जहाँ कभी कभार देखने को मिल जाता है की राज्य की नौकरिओं मे आरक्षण का कुल आंकड़ा ५०% भी पर कर जाता है |
  • यदि ये ऐसे ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे संविधान का भी  हश्र कुछ उसी तरह का होगा जिस तरह का हस्र आंबेडकर ने मनुसंहिता के साथ किया था |,..............................
  • ऐसा नहीं है की मै  राष्ट्रभक्त  नहीं हूँ | मै एक सच्चा  देशभक्त हूँ , पर ऐसा बोलना यहाँ तार्किक होगा की मुझे इस संविधान मे विश्वास अब  नहीं रह गया है | प्रायोगिक तौर पे तो लगभग सभी लोग  ऐसा ही  करते है , आज ऐसी ही  सोच रखने लगे हैं;  आज अपनी संविधान के प्रति | समाज ने भी तो मान्यता दे ही दिया है तभी तो जो जितना झूठा है और कानून की कमिओं का फायदा उठाना कोई  जानता  है और उसे अपने हक मे इस्तेमाल  करना जनता है वो ही आज बड़ा वकील बनता है,व्यापारी और नेता बनता है | इ.........SOME CONTENTS HAS BEEN DELETED DUE TO SOME REASON....12/06/2015.









    Thursday, January 13, 2011

    राष्ट्रभाषा --एक विवाद

    हमारी राष्ट्रभाषा क्या है? आप सोचने लगे न  ये कैसा सवाल है |पर ये बेतुका सवाल नहीं ;गंभीर सवाल है |आज़ादी के ६५ सालों के बाद भी  हमारे पास एक राष्ट्रभाषा  नहीं है |हम बोलते हैं,हमारी हिंदी है ; राष्ट्रभाषा पर भारत के अधिकतर भागों मे हिंदी को राजभाषा लोग नहीं मानते |यह हमारी एकता के लिए एक चुनौती है |
    मै यूँ ही क्लास मे बैठा था ;अचानक एक सज्ज़न कही से आये  और हमारे शिक्षक को  एक प्रचार-पुर्जी दे गए |{तमिलनाडु मे अभी विधान-सभा चुनाव होने वाला है |}जिसमे सिर्फ तमिल लिखा था |हमने शिक्षक महोदय से पूछा  की सर इसमे हिंदी या इंग्लिश मे कुछ क्यों  नहीं लिखा है |तो उन्होंने बोला -"क्या तमिल काफी नहीं है |"हमने बोला हिंदी तो हमारी राष्ट्रभाषा  है | तो उन्होंने तपाक से एक सौ रुपया का नोट अपने जेब से निकाला और  हमारे तरफ दीखाते हुए बोले --" देखो इसमे कितनी भाषाओं  मे सौ  रुपया लिखा है | ये सभी की सभी हमारी राष्ट्रभाषा हैं | हिंदी हमारी  राष्ट्रभाषा  कैसे हो सकती है ; ये सवाल मेरे दिमाग मे घर कर गया  | मै इसे गंभीरता से सोचने लगा |
    आप किसी भी विकसित देश पर नज़र  दौड़ाइए,आपको भाषा की समानता दिख जाएगी  | वहाँ कोई न कोई एक भाषा जरूर होगी  जो देश के अधिकतर भागों और बहुसंख्यक  द्वारा बोली जाती होगी,वह वहाँ  की राष्ट्रभाषा होगी  | इससे पूरे देश मे एक दुसरे से संपर्क स्थापित  करने मे आसानी  होती है | राष्ट्रभक्ति  के लिए ही सही ,जब लोग एक भाषा को  अपनी राजभाषा मानाने लगते है ;तब देश तरक्की करने लगता है | ऐसा भी नहीं है की उन् देशों मे भारत की तरह क्षेत्रीय भाषाए नहीं हैं ;पर देश-हित के लए वहां के लोग एक भाषा को अपनी राजभाषा के रूप मे कुबूल कर लेते हैं |पर हमारे यहाँ  राजभाषा के लिए विवाद बढ़ते ही  जा रहा है | मराठी बोलते हैं  हम हिंदी कुबूल नहीं करेंगे , तमिल बोलते हैं  हम संरक्षण हित से जुड़े होने की वजह से हिंदी कुबूल नहीं कर सकतें | सभी गैर-हिंदी राज्य बोलते हैं हिंदी कबूल  करने  से हमारी संस्कृति खतरे मे पड़ जाएगी | पर क्या कभी किसी ने सोचा है --उनके छोटे-छोटे  निजी स्वार्थयुक्त हितों के संरक्षण के वजह से एक बड़ा देश-हित खतरे मे  पड़ जायेगा  |  देश भाषा के नाम पर विघटित होने लगेगा  |  भाषा के नाम पर हम एक-दुसरे मे अनेकता आ जाएगी    |  भाषा के नाम पर राजनीति नहीं होनी चाहिए  |
    पूरे  देश के लिए एक ऐसे भाषा की जरूरत है ;जो  देश मे संपर्क स्थापित करने के लिए पर्याप्त हो  | आप कहेंगे इंग्लिश है न , तो मै आपको बता दूं ,यह तो वही बात हुई न , मेरा न तेरा किसी गैर से अपना  झगडा का फैसला कराना | इंग्लिश की ही बात पर मुझे एक बात याद आ गयी | मै तमिलनाडु के वेल्लुपुरम जनपद के एक छोटे से कस्बे मे गया था | वहां पर जब मैंने एक ठंडा-पेय(colddrink ) ख़रीदा तो वहां दुकानदार न हिंदी जानता था न ही इंग्लिश |वह दश-दश के दो नोट और एक पाँच का सिक्का दिखाकर  मुझे मूल्य बताया | मै उस समय हैरत-अंगेज रह गया | उस समय मै तमिल थोड़ा भी नहीं जानता था | मै सोचने लगा की इस देश मे जबकि सबलोगो(सर्वसाधारण)  को शिक्षा उपलब्ध ही नहीं है तब इंग्लिश सभी को सिखाने की कल्पना निरर्थक है |  आप इस उदहारण से समझ गए न  की इंग्लिश हमारी राज़-भाषा और संपर्क स्थापित करने वाली भाषा का  स्थान कभी नहीं ले सकती |    


    तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है ,जहाँ ५% लोग भी हिंदी अच्छी तरह से नहीं जानते है  | जबकि इसके पड़ोसी केरला मे दशवीं क्लास  तक  हिंदी पढना अनिवार्य  है | कर्नाटका मे ५०%  तक लोग हिंदी समझ और बोल लेते हैं | हिंदी विरोध का प्रमुख तर्क ये लोग देते हैं की तमिल भाषा  संस्कृत के बाद भारत की दूसरी सबसे प्राचीन भाषा है  | तो मेरा यहाँ  तर्क है ; तब संस्कृत को ही राजभाषा क्यों न बना दिया जाये आपके अनुसार | पर सबको पता है ये गलत होगा  क्योंकि कितने लोग संस्कृत जानते होंगे आज ! ये सिर्फ राजनेता राजनीति और वोट के लिए देश-विरोधी कार्य करते हैं  |ऐसा नहीं है की यहाँ के लोग हिंदी नहीं जानना चाहते या फिर देश की एकता के लिए कुछ करना नहीं चाहते पर ये नेता उन्हें गुमराह करते है और खुद हिंदी जानते हुए सामने वाले को इसका विरोध करने के लिए बर्गालातें है | ये यहाँ चालाकी भी कर रहे होते है अपने फयदे के लिए |
      हम कुछ पल  के लिए ये मान ले की यदि हिंदी के बजाय मराठी या मलयालम  को हमारी राजभाषा बना दिया जाता है ;तो हमें देश हित के लिए  अपनी मत्री-भाषा का मोह छोड़ राजभाषा  को तहे-दिल से कबूल कर लेना चाहिए | इसमे समस्या कुछ नहीं है बल्कि समस्या हम खुद पैदा कर देते हैं - अपनी संस्कृति के प्रति संक्रीनता लाकर  |मै तर्क देता हूँ -आप अपनी संस्कृति की ज्यों का त्यों बनाये  रखिये पर आप देश के अंग होने के नाते आपका  फ़र्ज़ बनता है की देश की राजभाषा, जो की यहाँ  की  बहुभाग और बहुसंख्यकों द्वारा बोली जाती है हिंदी को अपना लिजिय और इसका विरोध के बजाय सम्मान करिए |
    यह सही है की हम अपनी भाषा किसी  दुसरे पर जबरदस्ती  नहीं थोप (impose ) सकते | पर क्या देश को विघटित भी होने दे सकते हैं !हमने ७० वर्ष  इंतजार  किया -आप थोड़ा सा ही सही पर जानने लायक तो हिंदी सिख ही सकते था |पर आपकी संक्रीनता ही देश  के एकता के लिए खतरा है |
    अतित उदहारण है  हम ५०० सालों तक गुलाम क्यों बने रहें ,क्योंकि संस्कृति के प्रति हममे संक्रीनता आ गयी थी और ये संक्रीनता देश और संस्कृति के संरक्षण के लिए नहीं बल्कि राजाओं(राजनेताओं)  के निजी स्वार्थों से जुडी हुई थी |हम विश्व के साथ विकाश मे सामंजस्य  नहीं स्थापित कर सके और परिणाम क्या हुआ सबको पता है | हम ५०० सालों तक गुलाम रहे;तब हमारी संस्कृति के संरक्षण की बात तो दूर हम अपनी संस्कृति को भी  न बचा पायें , हमारी सारी सभ्यता-संस्कृति ही बिलकुल बदल गयी और जो कुछ बची भी थी वो संक्रमित हो गयी | हमें अतित से सिख लेना होगा और राष्ट्रहित  और राष्ट्र-एकता के लिए एक भाषा को राजभाषा बनाना होगा | राजभाषा के लिए वर्तमान मे  हिंदी पूर्ण रूप से सही है  क्योंकि इसे देश के एक बड़े भाग मे और बड़े वर्ग द्वारा मातृभाषा के रूप मे प्रयोग  किया जाता है | इसकी लिपि(script) देवनागरी है जो सबसे पुरानी भाषा संस्कृत और  देश की प्रमुख भाषाएं  असामी ,बंगाली,गुजरती,मराठी और भोजपुरी सब मे सामान रूप से प्रयोग मे लाया जाता है |--------------------------------------------------------------------------------------------SRT