इस उपरोक्त टिपण्णी पर जरा गौर कीजियेगा और एक पल के लिए सोचियेगा :
१) १.) क्या ६० के दशक में पनपा नक्सलबाड़ गांव से ये आंदोलन अपने मूल विचारधारासे से भटक गया है ?
२) २.) माओवाद एक विदेशी विचारधारा हमारे देश के लिए कितना प्रासंगिक है ?
जो विचारधारा अपने जन्मभूमि पर शांति-सुकून नहीं दे सकी ,गरीब-मजदूरों को और गरीब बनायीं ,मानवाधिकार का उलंघन गरीबों-मजदूरों की परिप्रक्ष्य में की ,वो कितनी प्रासंगिक है आज हमारे देश के लिए ? आज जबकि सभी व्यस्त है , सब के पास सिर्फ समय बचा है गंभीर बातों को मजाक में लेने का , तब मै आप सबके सामने आज के नक्सलवाद{माओवाद} की कुछ जमीनी हकीकत पेश करना चाहूँगा | नक्सलवाद प्रभावित राज्यों विशेषकर आँध्रप्रदेश ,बिहार-झारखण्ड ,उडीसा,क्षतिसगढ़ और पूर्वांचल {पूर्वी यु.पि} में जब कोई ठेकेदार रोड या कोई अन्य सार्वजनिक निर्माण जैसे विद्यालय या अस्पताल बनाने का ठीक लेता है तो उससे पुरे ठेके में से १०% की मांग की जाती है; ये बात सबको पता होती है |वह ठेकेदार सड़के खराब बनाकर अपनी भरपाई करता है |सड़के खराब होने से सबसे ज्यादा क्षति किसको होती है , आम जनता को |
जब कभी गांव-देहातों में दो गुटों में या दो लोगों में आपसी विवाद होता है |और आपसी समझ-बुझ के द्वारा निपटारा भी हो जाता है ; तो भी ये नक्सलवादी तानाशाह की तरह आते हैं और दोनों लोगों को अपनी आदालतों में आने का सामंती फरमान जारी कर देते हैं | सामान्यतः ऐसा देखा जाता है की ये दोनों गुटों से आर्थिक फायदा उठाते हैं ,जैसे उनसे पूरे काफिले के लिए दावत {खाने-पीने} का बंदोबस्त का फरमान जारी करना आदि-आदि |
अब मै आपलोगों के समक्ष एक ऐसी सच्चाई पेश कर रहा हूँ जो की हम जानते है उससे एकदम उल्टा है |यह जानकार मै भी हैरत-अंगेज रह गया | आज एक नयी सामंतवादी व्यवस्था का उद्भव हो चुका है और इस सामंतवादी तंत्र के अगुआ और प्रतिनिधि अन्य-पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने लोग हैं | जो नहीं चाहते की आदिवासियों,दलितों और गरीबों-मजदूरों का उत्थान हो ; और आश्चर्य की बात यह है की ये खुद को इन शोषितों का मसीहा बता रहे हैं और इनपर ही सामंतों की तरह शासन कर रहे हैं | एक घटना का उल्लेख करना मै यहाँ जरूरी समझता हूँ | मै अपने पैत्रिक-गांव गया हुआ था | मेरी बात एक सज्जन से हो रही थी ; जो एक अच्छे कृषक थे और तक़रीबन ३० सालों से बुआई-कटाई के लिए मजदूरों को लाने झारखण्ड {पहले बिहार} के लातेहार{पहले कोडरमा} जिले जाया करते थे |उन्होंने अपनी आप बीती बताई :-
“ एक बार जब मै मजदूरों को लेकर वाहन से आ रहा था तो उस जगह से निकलते ही ;वहाँ रास्ते में दो युवक हाथ में हथियार{स्वचालित-बन्दूक} से लैश होकर वाहन को रुकवाएं और बोले गाड़ी अब आगे नहीं जायेगी ;तुमलोग उतरो| उन मजदूरों{आदिवासियों} में से किसी का हिम्मत नहीं हो रहा था की वे बोले की बाबू हमें बहार जाने से रोक रहे हो तो क्या तुमलोग हमें खिलाओगे ,रोज़ी-रोटी का साधन दिलाओगे | वे बेचारे डरे-सहमे थे | तभी एक सज्जन जैसे दिखने वाले वहाँ आयें जो की उन हथियार-बंद जवानों के मुखिया थे | मैंने उनसे बोला “ यादव जी ये देख रहे हैं ,जाने दीजिए ; इन बेचारे गरीबों का रोज़ी-रोटी छिनने से क्या फायदा |”
तब यादव जी मुझे बगल में ले जाकर बोलें ‘ आप –लोगों का ही तो ये सब किया धरा है | आप ही लोग तो इन्हे बिगाड़-कर रख दिए हैं | ‘इन्हे यही मरने देते {पड़े रहने देते }| मै कुछ नहीं बोला बस सुनते गया और यादव जी को कुछ खर्चा-पानी{रिश्वत} गाड़ी छोड़ने के एवज में दिया ;और तब जाकर वहाँ से गाड़ी आगे बढ़ी |”{यह घटना झारखण्ड के लातेहार जिले कि है } इस तरह की घटनाएँ झारखण्ड में आम हैं | ये मध्य-वर्ग नविन सामंतवाद का सृजन कर रहा है | जिसमे वो आदिवासियों -दलितों का शोषण कर रहा है ; उनका मसीहा बनकर |
· * मै एक सवाल आप सबसे करना चाहता हूँ की आखिर सर्वजनिक अस्पताल और सरकारी विद्यालयों को क्षतिग्रस्त कर के ; नक्सलवादी बंधुओं की कौन सी मानसिकता उजागर होती है | क्या वे नहीं चाहते की आदिवासी-दलित पढ़-लिखकर उत्थान करें ?
नक्सल प्रभावित राज्यों बिहार-झारखण्ड ,पूर्वांचल,उड़ीसा,क्षतिसगढ़ और आंध्रप्रदेश में एक ऐसे मध्य-वर्ग का उद्भव हो रहा है जो की एक नविन सामंतवादी{जमींदारी} प्रथा का सृजन कर रही है | इन समुदायों की तिव्र इक्षा खुद को सामंतों की तरह ऊपर उठाने और आदिवासियों-दलितों को गर्त में धकेलना है ;उनका प्रतिनिधि और उनके हक की लड़ाई का स्वांग रचकर ये अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं |
उदाहरणत: मै यहाँ सिर्फ झारखण्ड की वास्तु-स्थिति रखता हूँ | यहाँ के नक्सलवादी और माओवादी गुटों के कमांडर और हथियार-बंद दस्तों में सिर्फ अन्य-पिछड़ा वर्ग के {अधिकंसत:} लोग शामिल होते हैं ; खाशकर यादव बंधू-लोग अधिकांश मिल जायेंगे |यहाँ के आदिवासी और दलित डर में जीते हैं |एक तरफ अगड़ी जाति के लोगों की मानसिकता इनके विकास में बाधक होती है और दूसरी तरफ इन लोगोंका डर इनपर इस कदर हावी होता है की इनका विकास अवरुद्ध हो जाता है | एक तरफ इन्हे मुख्य-धारा में आने से विभिन्न तरीकों से रोका जाता है वहीँ इस तरह का कुचक्र रचा जाता है की ये सरकार द्वारा मुहैया कराये गए सुविधाओं से वंचित रहें | मतलब ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’ जैसी स्थिति यहाँ के आदिवासियों दलितों के साथ हो जाती है |
यहाँ आदिवासियों,दलितों को जानबूझकर शिक्षा पाने और मुख्या-धारा से जुड़ने से वंचित रखा जाता है |इसके बहुत से कारक है ,जिनमे से कुछ का मै यहाँ उल्लेख करता हूँ :-
· * आदिवासी और दलितों के बिरादरी से आने वालें राजनीतिज्ञ जानबूझकर इन्हे इनके हाल पर रखना चाहते हैं | जिससे ये बिना समझे-बुझे अपनी जातिगत वोट-बैंक पा सकें | क्यूंकि इनके शिक्षित और समझदार हो जाने पर इन्हें{प्रतिनिधियों को} अपनी निजी-स्वार्थ और सस्ती जातिगत आधारित वोट-बैंक पर खतरा मंडराते नज़र आता है |
· * और ये अन्य-पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले अगुआ लोग खुद को उनका मसीहा बताकर उन्हें जान-बूझकर अशिक्षित और मुख्या-धारा से कटे रहना देना चाहते हैं | ताकि उनके गुस्से को एक खाश वर्ग के खिलाफ भड़काकर वे अपना उल्लू सीधा कर सकें | यहाँ इनकी सामंती सोच काम कर रही होती है |
मै इस परिप्रेक्ष्य में बस्तर का उदहारण रखता हूँ |बस्तर में नक्सलवाद इसलिए बढ़ा कि जब वहाँ के आदिवासियों से उनका जमीन,जंगल और रोज़गार छिना जा रहा था तो उन्हें संगठित होकर सशस्त्र संघर्स करना पड़ा, जो कि उस समय कि और परिस्थिति कि मांग थी ; सरकार का ध्यान खींचने और अपने घर , रोज़गार को बचाने का एकमात्र रास्ता था | पर जब सरकार ने वहाँ के आदिवासियों के हित में कार्य करना शुरू किया तो नक्सलवादियों को समस्या होने लगी |उन्होंने सरकार के सार्वजनिक हित के कार्यों का पुरजोर विरोध करना शुरू कर दिया | ये समझ से परे है कि आखिर ऐसे समाज उत्थान के कार्यों से आखिर नक्सलवादियों को किस तरह का नुकसान हो रहा है |सरकार द्वारा बनवाये गए सार्वजनिक अस्पताल और विद्यालयों को निशाना बनाया गया ; आखिर विद्यालय तो शिक्षा-अर्जन के लिए हैं ,इससे भला क्या नुकसान हो सकता था | ये बातें कुछ सवाल जेहन में छोड़ जाती हैं :-
· * सरकार द्वारा मुहैया कराये जाने वाले सुविधायों को पाने से आदिवासियों को आख़िरकार क्योँ रोका जाता है ? और इसका मकसद क्या है ?
· * मुख्या-धारा में जाने पर या नक्सलवादियों के ज्यादतियों और सामंतवादी व्यवहारों का विरोध करने पर इनके द्वारा ,आदिवासियों का नरसंहार क्योँ किया जाता है ?
मकसद तो इस विचारधारा का पिछडों का उत्थान था ; और जबकि उत्थान का और इनके जीवन-स्तर के विकास का कार्य हमारे भारत सरकार द्वारा हो रहा है तो इसका विरोध कहाँ तक उचित है | यहाँ विरोध कहीं से भी प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता और ऐसा क्योँ हो रहा है कुछ समझ में नहीं आ रहा है | इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि ये नहीं चाहते कि वास्तविक मायने में आदिवासियों-दलितों का भला हो | ये तानाशाही और सामंतवाद को आदिवासियों पर कहर बरपा कर चलाना चाहते हैं | ये अपनी मूल-विचारधारा से भटक गए हैं | आखिर आदिवासियों के हक के लिए लड़ने वालों को ही इनकी नर-संहार कि जरुरत क्योँ पड़ रही है ;ये एक ज्वलंत मुद्दा है |
इसका जवाब जितना ही सरल है, उतना ही जटिल भी ||